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संत-काव्य

कर नहीं रहता, व्यग्र व चंचल हो उठता है। (दे॰ काण्हपा, "कान्हु कटिगइ करिब निवास। जो मन गोअर सो उग्रास", चर्यापद ७)।

भक्ति का भ्रम

(४)

भूली मालनी है, गोव्यंद जागतो जगदेव, तू करें किसकी सेव॥टेक॥
भूली मालनि पाती तोड़ै, पाली पाती जीव।
जा सूरतिको पाती तोड़ै सो पाती तरजीव॥१॥
टाचणहारै टांचिया, दै छाती ऊपर पाव।
जे तूं मूरति सकल है, तो घडण हारे की खाब॥२॥
लाडू लावण लापसी, पूजा चढ़ै अपार॥
पूजि पुजारा ले गया है सूरत कै मुंह द्वार॥३॥
पाती ब्रह्मा पुहुपै विष्णु, फूल फल सहादेव।
तीनि देवों एक सूरति, करै किसकी सेव॥४॥
एक न भूला दोइ न भूला, भूला सब संसारा।
एक न भूला दास कबीरा, जाकै राम अधारा॥५॥

भूली.. हे = ॠरी मालिन, तू भ्रम में पड़ी है। नरजीव = निर्जीव। डाँचणहास = मूर्ति गढ़ने वाले ने। टाँचिया = उसे गढ़ा। सकल = शक्ल, वास्तविक प्रकृति को लावण = नमकीन पदार्थ। लापसी = लपसी = अमिक मीठा गोला पदार्थ। छार = धूल। (दे॰ "मूलं ब्रह्मा त्वचा विष्णुः शाखा शंकर एव च" आदि)

भ्रांत जन

हरि बिन भरमि विगूते अंधा।
जापै जाँउं आपु पुछुटकावनि, ते बाँधे बहु फंधा॥टेक॥
जोगी कहें जोग सिधि नीकी, और न दूजो भाई।
चुंडित मुंडित मौनि जटायर, ऐजु कहें सिधि पाई॥१॥
जहाँ का उपज्या वहाँ बिलाँनाँ, हरिपद विसरचा जवहीं।