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संत-काव्य

में, इस उद्देश्य से वृक्ष के निकट जाये कि वहाँ पर सुख की प्राप्ति होगी। तरबर...बुझाउं = किन्तु उस वृक्ष से भी ज्वाला ही फूट निकले तो में फिर उसे कैसे शांत कर सकता हूँ। (सारांश यह कि यदि ८४ योनि के चक्कर से बचने के लिए तुम्हारी शरण में जाऊं, किंतु तुम्हारे यहां भी मुझे विविध विडंबनाओं के ही जाल में फंस जाना पड़े और अपना छुटकारा संभव न दीख पड़े तो मैं अब कौन सा अन्य उपाय ग्रहण करूं)। तारण तिरण = तारने वाला अथवा तरने वाला।

(१०)

आत्म-समर्पण

मैं गुलाम मोहि बेचि गुसांई।
तन मन धन मेरा रामजी कै तांई ॥टेक॥
आँनि कबीरा हाट उतारा। सोई ग्राहक सोइ देवन हारा॥१॥
बेचे राम तौ राख कौन। राखे राम तौ बेचे कौन॥२॥
कह कबीर में तन मन जाय। साहिब अपना छिन न विसरया॥३॥

तांई = लिए।

(११)

अपना संबंध

'हरि मेरा पीव माई, हरि मेरा पीव।
हरि बिन रहि न सकेँ मेरा जीव॥टेक॥
हरि मेरा पीव में हरि की बहुरिया।
राम बड़े मैं छुटक लहुरिया॥१॥
किया सिंगार मिलनके तांई।
काहे न मिलौ राजाराम गुसांई॥२॥
अब की बेर मिलन जो पाउं।
कहै कबीर भौजलि नहि आउ॥३॥

छुटक लहुरिया = बहुत छोटी।

पाठभेद—'बीजक' में इस पद का पाठ बहुत भिन्न है। 'आदि ग्रंथ'