सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:संत काव्य.pdf/१९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७७
प्रारंभिक युग

कोई भी प्रकट नहीं कर पाता। मिलि...गावै = उसके केवल गुणों तथा व्यापारों का वर्णन करना ही सब को आता है।

(२७)

मनोभ्रम नाश

मन का भ्रम मन ही थैं भागा।
सहज रूप हरि खेलण लागा॥टेक॥
मैं तें तें में ए हूँ नाहीं। आप अकल सकल घट मांहीं॥१॥
जब इन मन जन मन जाना। तब रूप न रेष तहाँ ले बाना॥२॥
तन मन मन तन एक समानां। इन अन माह मन माना॥३॥
आमलीन अडित रामा। कहे कबीर हरि मांहि समानां॥४॥

सहज...लागा = हरि के सहज रूप का प्रत्यक्ष अनुभव यांना = जब इस मन को हरि के प्रति उन्मुख हुए रहने का अभ्यास हो गया तो रूपादि बाह्य बातों का प्रश्न ही दूर हो गया। इन माना = ऐसी अनुभूति हो जाने पर ही मन को पूरा संतोष हुआ। आतम...रामा = पूर्ण परमात्मा में लीन हो गया।

(२८)

स्थिर मन

रे मन जाहि जहां तोहि भावे।
न कोई तेरै अंकुस लावै॥टेक॥
जहाँ जहाँ जाइ तहाँ तहाँ रांमा।
हरि पद चीन्हि कियौ विश्रांमा॥१॥
तन रंजित तव देखियत दोई।
प्रगटी ग्यांन जहां तहां सोई॥२॥
लीन निरंतर बघु विसराया।
कहै कबीर सुख सागर पाया॥३॥

रंजित = गुणों द्वारा प्रभावित। बपु बिसराया = शरीर का भाव जाता रहा।

१२