पृष्ठ:संत काव्य.pdf/१९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१८०
संत-काव्य


सोधि = विशुद्ध कर के। सारा = विशुद्ध, निखालस, उत्तम। उपजत...उपाई = अनेक उपायों के प्रयोग करते-करते। उनमनी ध्यान = मन को परमात्मा की ओर उन्मुख करने के अभ्यास द्वारा। कथीरा = रोगा के समान था।

(३३)

ज्ञान की स्थिति

अब में पाइवौ रे पाय रे ब्रह्म गियान।
सहज समाधें सुख में रहियो, कोटि कलव विश्राम॥टेक॥
गुर कृपाल कृपा जब कीन्हीं, हिरदे कंवल विगासा।
भागा भ्रम दस दिस सूमा, परम जोति प्रकासा॥१॥
मृतक उठचा धनक करलीये, काल प्रहेड़ी भागा।
उदया सूर तिस किया पयाना, सोवत थे जब जागा॥२॥
विगत अकल अनुपम देख्या कहतां कला न जाई।
न करें मन ही मन रहतं, गूंगे जानि मिठाई॥३॥
पहुप बिना एक तरवर फलिया, बिन कर तूर बजाया।
नारी बिना नीर घट भरिया, सहज रूप सो पाया॥४॥
देखत कांच भया तन कंचन, बिन बानी मन मानां।
उड़या विहंगम खोज न पाया, जल जलहि समाना॥५॥
पूज्या देव बहुरि नहि पूजौ, न्हाये उदिक न नांउं।
भागा भ्रम ये कहो कहतां, आये बहुरि न आंये॥६॥
आपै मैं तब आपा निरष्या, अपन पे थापा सूझ्या।
ये कहत सुनत पुनि अपना अपना आपा बुझया॥७॥
अपने परचै लागी तारो, अपन पे आप समानां।
कहै कबीर जै आप बिचारे, मिटि गया आवन जानां॥८॥

भागा भ्रम = भ्रम दूर हो गया, संशय जाता रहा। दसौं सूझा = सभी बातें अपने वास्तविक रूप में दीख पड़ने मृतक...लीयें = मरे हुए अर्थात् चंचलता से लगीं। रहित मन में पूर्व