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प्रारंभिक युग

शक्ति आ गई। काल...भागा = शिकार करने को प्रस्तुत काल भाग खड़ा हुआ, उसका प्रभाव जाता रहा। उदया...जागा = सचेत होते ही ज्ञान का उदय हो आया और अज्ञान का विनाश हो गया। अविगत...मिठाई = उस अज्ञात किंतु पूर्ण एवं अनुपम परमतत्त्व का प्रत्यक्ष अनुभव किया, जिसका वर्णन उसी प्रकार असंभव है जैसे गूंगे का मिठाई के स्वाद का और उसकी भाँति, मन में प्रसन्न होते हुए भी मेरा केवल संकेत मात्र करना अब रह गया है। पहुप फलिया = प्राणों के वृक्ष सें बिना फूल के ही फल लग गया, उन्हें बिना पूर्व संकेत के ही सिद्धि की प्राप्ति हो गई। बिन बजाया = बिना प्रयास के ही अनाहत शब्द होने लगा। नारी...भरिया = काया के घड़े में बिना किसी भरने वाले के ही प्रकाश का जल भरपूर हो गया। देखत कंचन काया देखते ही देखते निखर कर काँच से कंचन हो गई। बिन...माना = बिना किसी के कहने-सुनने से ही मन में संतोष आ गया। उड्या...समाना = सुरति इस प्रकार शब्द में जाकर लीन हो गई कि उसका पता लगाना आकाश में उड़ने वाले पक्षी के मार्ग को निश्चित करने की भांति अथवा जल में जल के मिल जाने की भांति असंभव हो गया। पूज्या...नाउं = अब ऐसी पूजा कर ली कि किसी देवता के पूजने की आवश्यकता नहीं रह गई और ऐसा स्नान कर लिया कि तीर्थ के पानी में डुबकी लगाने से कोई लाभ नहीं। अपने तारी = अत्म एकतानता की स्थिति आ गई।

(३४)

काया पलट

अब हम सकल कुसल करि माना।
स्वांति भई तब गोव्यंद जानां॥टेक॥
तब मैं होती कोटि उपाधि उलटि भई सुख सहज समाधि॥१॥
जमते उलटि भया है राम। दुःख विसरचा सुख कोया विश्राम॥२॥
वैरी उलटि भया है मीता। साबत उलटि सृजन भये चीता॥३॥