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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/१९५

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सत-काव्य

आया जांनि उलटि ले आप तो नहीं व्यापै तीन्यू ताप॥४॥
अब मन उलटि सनातन हूवा। तब हम जाना जीवत सूबा॥५॥
कहै कबीर सुख सहज समाऊं। आप न डरों न और डराऊं॥६॥

अब...माँना = अब सुके सभी ने हितकारक मान लिया अथवा सब कुछ सिद्ध होता जान पड़ा। स्वाँति = शांतिका अंत। चीता = हितचितक। आया...आप = अथवा अपनी अहंता अपने आपको जान लेने पर आत्मा का परिवर्तन परमात्मा में हो जाता है। सनातन = नित्य शाश्वत परमात्मा तत्र... सूवा = सुझ जीवन्मुक्ति का अनुभव हुआ।

(३५)

बैठकुं-रहस्य

चलन चलन सब को कहत है, ना जानों बैकुंठ कहां है॥टेक॥
जोजन 'परमिति, परमनु जाँनै। दातनि हो बैकुंठ वाले॥१॥
जब लग है बैकुंठ की आसा। तब लग नहीं हरि चरन निवासा॥२॥
कहे सुने कैसे पतिइये। जब लग तहाँ आप नहीं जाइये॥३॥
कहै कबीर यह कहिये काहि। साध संगति बैकुंठहि आहि॥४॥

जो...बयानै = जो व्यक्ति परमात्मा की इयत्ता और उसके परिमाण की भावना रखता है वह बातों में ही बैकुंठ का वर्णन कर देना चाहता है।

पाठभेद—एक प्रमिति नहीं (क॰ ग्रं॰)।

(३६)

मुक्ति-रहस्य

राम मोहि दारि कहाँ लै जैहो।
सो बैकुंठ कहौ घूं कैसा, करि पसाव मोहि देहो॥टेक॥
जो मेरे जीव दोह जानत हौ, तौ मोहि मुकति बताओ।
एकमेक रमि रह्या सबनिमें, तौ काहे भरमावो॥१॥