पृष्ठ:संत काव्य.pdf/१९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१८३
प्रारंभिक युग

तारण तिरण जबै लग कहिये, तब लग तत न जांना।
एक राम देख्या सबहिन में, कहै कबीर मनमाना॥२॥

पसाब = अनुग्रह। जे...हौ = यदि जीवात्मा को अपने से भिन्न मानते हो।

(३७)

अंतः साधना

वनहि बसे क्यूं पाइये, जौली मनहु न तजै विकार।
जिह घर बन समर किया, ते पूरे संसार॥१॥
सार सुख पाइये रामा। रंगि रवहु आतम राम॥टेक॥
जटा भसम लेपन किया, कहा गुफा महि वास।
मन जीते जग जीतिया, जाते विषया ते होइ उदास॥२॥
अंजन देइ सभै कोई, टुकु वाहन माहि विज्ञान।
ग्यान अंजन जिह पाइया, ते लोइन परवान॥३॥
कहि कबीर अब जानिया, गुरि व्यान दिया समाई।
अंतरिति हरि भेटिया, अब मेरा मन कवह न जाइ॥४॥

समरि = एक समान। सार सुख = वास्तविक आनंद। रंगि ...राम = अपनी अंतरात्मा के ही रंग में रंग जाओ। दुकु... .विडान = केवल देखने मात्र के हो कारण विषय हो गए। परवान = प्रामाणिक, आदर्श। अंतरगति = आभ्यंसरिक प्रयत्नों द्वारा।

(३८)

अनुभूति-महत्व

पंडित बाद वदंते झूठा।
राम कह्याँ दुनिया नति पावैं, षांड कह्या मुख मीठा॥टेक॥
पावक का पाव जे दाहै, जल कहि त्रिषा बुझाई।
भोजन कह्यां भूष जे भाजे, तो सब कोई तिरि जाई॥१॥
नर के साथ सूवा हरि बोलै, हरि परताप न जानै।
जो कबहूं उड़ि जाय जंगल में, बहुरि न सुरतै आनै॥२॥