रहेंगे और संसार के प्राणी अपने आवागमन में लगे रहेंगे अब...मांना = अब मेरे जरामरण का धंधा बंद हो गया और उससे मुझे पूरा संतोष भी हो चुका। भरि पीछे = परमात्मा को उपलब्धि का भरपूर आनंद लिया करते हैं। हरि है = हरि के साथ तदाकारता वा तद्रूपतः ग्रहण कर में उन्हों की भांति नित्य शाश्वत बन गया।
(४१)
दास रामहि जानिहै रे, और न जाने कोई॥टेक॥
काजल देइ सबै कोई, चषि चाहन माहि विमान।
जिनि लोइनि मन मोहिया, ते लोइन परवान॥१॥
बहुत भगति भौसागरा, नाना विधि नाना भाव।
जिहि हिरदै श्रीहरि भेटिया, सो भेद कहूं कहूं ठांव॥२॥
दरसन संमि का कीजिये, जौ गुन नहीं होत समान।
सौंधव नीर कबीर मिल्यौ है, फटक न मिले परवान॥३॥
काजल...परवान = किसी के क्षेत्रों का सौंदर्य उनमें दिये गए काजल पर निर्भर न होकर उनकी अनोखी चितवन में हो रहा करता है इस कारण वास्तविक क्षेत्र के ही कहे जा सकते हैं जिसमें मोहने की शक्ति हो। सो...ठांव = वैसा रहस्यमय हृदय बहुत कम पाया जाता है। दरसन...कीजिये = केवल बाहरी साम्य निरर्थक है। सींघव...है = नमक तथा जल मिल कर एक हो जाते हैं। फटक...पषान = स्फटिक शिलाखंड जो देखने में नमक सा ही होता है, जल में नहीं मिल पाता (दे॰ सींधव... अंग॥ दादू—साध को अंग ९५)।
(४२)
पवा पक्षी कै पेषणें सब जगत भुलाना।
निरपष होइ हरि भजै, सो साध सयांना॥टेक॥
ज्यूं पर सूं पर बंधिया, यूं बंधै सब लोई।
जाकै आतम द्रिष्टि ह्, साचा जन सोई।