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संत-काव्य

जनकौं काम क्रोध व्यापै नहीं, त्रिष्णा न जरावै।
प्रफुलित आनंद में, गोव्यंद गुण गावै॥१३॥
जनकों पर निद्यां भाव नहीं, अरु असति न भाषै।
काल कलपना मेटिकरि चरनूं चित राखे॥२॥
जन सम द्रिष्टी सदा, दुबिधा नहीं आने।
कहै कबीर तो दास लू, मेरा मन मानै॥३॥

आतुरतुरता, उतावलापन, घबड़ाहट, दुविधा = द्वैतभाव।

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भाव-भगति

कथणीं बदणी सब जंजाल।
भाव भगति र राम निराल॥टेक॥
कथं वद सुर्ण सब कोई। कथं न होई कीयै होई॥१॥
कूड़ी करणों राम न पार्व। साच टिकै निज रूप दिखावै॥२॥
घट में अग्नि घर जल प्रवास। चेति बुझाइ कबीरादास॥३॥

निराल = अनुपम, अद्वितीय। साच टिकै = सत्य पर आश्रित रहने पर हो। घट...कबीरादास = कबीर साहब का कहना है कि काया के भीतर जो पिपासाग्नि ज्वलित हो रही है उसे शांत करने के लिए परमात्म जल भी वहीं वर्त्तमान है इसे समझ कर उसे बुझा लो

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सृष्टि-लीला

दुइ दुइ लोचन पेखा। हाँ हरि बिन और न देखा॥
नैन रहे रंग लाई। अब बेगल कहन न जाई।
हमरा भर गया भय भागा। जब रामनाम चित लागा॥१॥
बाजीगर डंक बजाई। सभ खलक तमासे आई।
बाजीगर स्वांग सकेला। अपने रंग रवै अकेला॥२॥
कथनो कहि भरमु न जाई। सभ कथि कथि रही लुकाई॥
जाको गुर मुखि आपि बुझाई। ताके हिरदै रह्या समाई॥३॥