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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२०२

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प्रारंभिक युग


गुर किंचत किरपा कीनी। सभु तन मन देह हरि लीनी॥
कह कबीर रंगि राता। मिलिओ जगजीवन दाता॥४॥

हौं = मैंने। नैन...लाई = मेरे नेत्र उसी के अनुराग में रंजित हो रहे हैं। बेगल = उसके बिना दूसरा कुछ भी। बाजीगर = उस लीलामय ब्रह्म ने। खलक = संसार। स्वाँग = दिखावा, तमाशा। सकेला = बटोर लिया, बंद कर दिया। रंग = स्वभाव में सब...लुकाई = सभी उपदेश दे-देकर अपना मुँह छिपा लेते हैं।

(४९)

उस कोरी का अनुसरण

कोरी को काहू मरम न जानां। सभ जग आनि तनायो ताना॥
जब तुम सुनिले वेद पुराना। तब हम इतनकु पसरियो ताना॥
धरनि अकास की करगह बनाई। चंद सूरज बुइ साथ चलाई॥
पाई जोरि बात इक कीनी। तंह तांती मनमाना।
जोलाहे पर अपना चीन्हा, घटहीं राम पछाना॥
कहत कबीर करगह तोरी, सूतै सूत मिलाये कोरी॥

कोरी = सृष्टिकर्त्ता जुलाहे का। तब ताता तबतक मैंने अपना = चंद्र और सूर्य को ढरकी कुछ ताना फैलाया। चंद...चलाई बना उन्हें साथ-साथ चला दिया। पाई....कोनी = टिकठियों को जोड़कर, उस पर ताने गए सूत को कूंचों से माँज बराबर किया। तह... मनमाना = तब जुलाहे को संतोष हुआ। (कबीर के पक्ष में 'धरनि अकास की करगह घट अर्थात् काया है, चंद्र सूर्य ईडा पिंगला नाड़ियाँ है और 'पाई' आदि की किया, शरीर के ढांचे के भीतर, योग वा आध्यात्मिक ऐक्य का स्थापित करना है। जोलाहे = कबीर जोलाहे ने। तुलना के लिए दे॰ 'बीजक' रमैनी २८)।

(५०)

अज्ञेयविषयक अम

जस तूं तस तोहि कोई न जान, लोग कहें सब आनहिं आन॥टेक॥