पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१९५
प्रारंभिक युग


पाठभेद—'मन रे छाडहु भरम प्रगटू होइ नाचहु या मायाके डांडे'। 'राजा राम न छोडउ सगल ऊंच ते ऊंचा' (आ॰ ग्रं॰)। 'आदि ग्रंथ' में ५वी-छठीं पंक्तियाँ नहीं हैं।

(६१)

सच्ची आरती

ऐसी धरती त्रिभुवन तारै।
तेजपुंज तहाँ प्रान उतारै॥टेक॥
पाती पंच पहुप करि पूजा, देव निरंजन और न दूजा।
तन मन सीस समरन कीन्हा, प्रगट जोति तहाँ आतम लीना॥१॥
दीपग ग्यान सबद धुनि घंटा, परम पुरिख तहाँ देव अनंता।
परम प्रकास सकल उँजियारा, कहे कबीर मैं दास तुम्हारा॥२॥

तेज...उतारै अपने प्राणों को आत्मज्योति के संपर्क में ला देवे। पाती...पुजा = पूजा की विधि में पंचेद्रियों को पत्तों तथा पुष्पों की जगह अर्पित कर देवें। दीपक घंटा = ज्ञान के दीप और अनाहत नाद की ध्वनि को इस भारत के समय प्रयोग में लायें।

(६२)

दैनिक आवश्यकता

भूखे भवति न कीजें, यह माला अपनी लीजै॥
हौं माँगों संतन रेना। में नाही किसी का देना॥१॥
माघो, कैसी बने तुम संगे। आपन देहु त लेव मंगै॥टेक॥
दुइ सेर मांगउ चूना। पाउ घीउ संग लूना।
अब सेर माँगउ दाले। मोको दोनउ वखत जिवाले॥२॥
खाट मांगउ चउपाई। सिरहाना अवर तुलाई।
ऊपर कउ माँग खीधा। तेरी भगति करें जनु बीघा॥३॥
मैं नाही कोता लबो इकु नाउ तेरा में फबो।
कहि कबीर मनु मान्या। मन मान्या तो हरि जान्या॥४॥