पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

साँचा:Running header

निरंतर चले आते हैं। आधुनिक समय तक पहुँचने पर ही हमें उन में कोई वास्तविक परिवर्तन लक्षित हो पाता है।

हिंदी साहित्य के इतिहासकार उसके काव्य का आरम्भ पहले पहल अधिकतर वीररसप्रधान कृतियों से ही किया करते थे और उसका आदिकाल 'वीरगाथाकाल' के नाम से प्रसिद्ध हो चला था। किन्तु इधर की खोजों द्वारा प्राप्त किये गए हस्तलिखित ग्रंथों के आधार पर अब यह नामकरण कुछ अनुपयुक्त सा जान पड़ने लगा है और भिन्न-भिन्न लेखक अब इसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारने लगे हैं। तदनुसार आजकल यदि कोई इसे उस समय की प्रचलित भाषा के आधर पर नाम देना चाहते हैं तो दूसरे इसकी उपलब्ध कृतियों की पृष्ठभूमि-स्वरूप सामाजिक दशा को महत्व देते हैं। अन्य लोग इसे केवल आदिकाल वा प्रांरभिक युग कहकर ही संतोष ग्रहण कर लेते हैं। विषय की दृष्टि से इस युग में उक्त तीनों रसों की रचनाएं प्रायः समान रूप से दीख पड़ती हैं। बौद्ध सिद्धों, जैन मुनियों तथा इसके उत्तरार्द्ध काल के भक्त कवियों की कृतियों में शांतरस की प्रधानता है, प्रेम कहानियों में श्रृंगाररस प्रमुख बन गया है और जैन प्रबंधकाव्यों वा रासो जैसी रचनाओं में प्रसंगानुसार वीर एवं श्रृंगार दोनों ही प्रायः एक समान वर्तमान हैं। इसी प्रकार आगे विक्रम की चौदहवीं शताब्दी तक के समय का पूर्वाद्ध अधिकतर शांतरस-प्रधान एवं उत्तरार्द्ध शृंगाररस-प्रधान है। वीरररस के काव्यों की संख्या वैसी कृतियों की अपेक्षा बहुत कम दीख पड़ती है। पंद्रहवीं से लेकर सत्रहवीं तक फिर इसी प्रकार शांतरस-प्रधान काव्यों का ही बाहुल्य रहता है। आगे की उन्नीसवीं शताब्दी तक फिर श्रृंगाररस की प्रधानता हो जाती है। वीररस की कृतियों का कोई अपना विशेष युग नहीं है और वे सदा केवल छिटफुट रूप में ही दिखलाई पड़ती है।