पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२२

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दार्शनिक एवं धार्मिक विषय हिंदी काव्यधारा के कदाचित् सबसे प्राचीन वर्ण्य वस्तु हैं। इनका अस्तित्व उसके अपभ्रंश रूप में भी पाया जाता है। विक्रम की ९वीं शताब्दी में सर्वप्रथम, हमें बौद्ध सिद्धों की रचनाएँ मिलती हैं जिनमें वज्रयान एवं सहजयान संबंधी सांप्रदायिक विचारों और उनकी साधनाओं की चर्चा की गई है तथा उनसे विरोधी संप्रदायों की अनेक बातों की आलोचना भी की गई है। प्रायः उसी प्रकार की बातें, हमें आगे चलकर नाथपंथी 'जोगियों' तथा जैन मुनियों की भी वैसी उपलब्ध रचनाओं में दीख पड़ती हैं। प्रधान अंतर यह है कि बौद्ध सिद्धों की रचनाओं में जहाँ केवल 'वोहि, 'सुन्न' एवं 'सहज' का महत्व, नैरात्मा की विविध चेष्टाओं तथा कतिपय यौगिक साधनाओं के ही प्रसंग आते हैं वहाँ नाथों की रचनाओं में हमें ईश्वरत्व की भावना भी लक्षित होने लगती है। उस काल की प्रायः सभी वैसी रचनाओं में हमें कुछ नैतिक बातों का भी समावेश स्पष्ट दिखलाई पड़ता है। ये सभी रचनाएँ अधिक सांप्रदायिक प्रेरणा से ही लिखी गई हैं और इनमें स्वभावतः उपदेशों की ही भरमार है। फिर भी बौद्ध सिद्धों के चर्यापदों, नाथों की सबदियों, जैनियों के चरितों एवं पुराण-ग्रंथों तथा उन सभी के अनेक दोहों में हमें अनेक ऐसे स्थल भी मिलते हैं जिन्हें हम काव्य के अच्छे उदाहरण कह सकते हैं। हिंदी-साहित्य के इतिहास के ये ४०० वर्ष उसके प्रांरभिक युग के ही द्योतक हैं। यह वस्तुतः अपभ्रंश वा प्राचीन हिंदी अथवा राजस्थानी का युग है जिस कारण इस समय की वैसी उपलब्ध कृतियों की गणना हिंदी काव्यों में करना उचित नहीं कहा जा सकता। हिंदी काव्यधारा का स्रोत इनमें बहुत क्षीण रूप में ही दीख पड़ता है।

हिंदी के उपर्युक्त प्रारंभिक युग से ही भारत पर मुसल्मानों का आक्रमण होने लगा था। सं॰ ७६९ में उन्होंने सिंध प्रदेश पर पहले