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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२१०

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प्रारंभिक युग


वन कोकिला नाद गहगहाना। रुति वसंत सबकै मनि माना॥
विरहन्य रजनी जुग प्रति भइया। बिन पीव मिलें कलप टलि गइया॥
आतमा चेति समझि जीव जाई। बाजी झूठ राम निधि पाई॥
भया दयाल निति बाजहि बाजा। सहजै राम नाम मत राजा॥
जरत जरत जल पाइया, सुख सागर का मूल।
गुर प्रसादि कबीर कहि, भागी संसै सूल॥

भया...जागा = परमात्मा की दया हुई है और मैं, बिरहाग्नि से जल चुकने पर, विष (त्रिताप) नाशक (रामनाम) मंत्र से प्रभावित हो जग उठा। गहगहान लागा = में प्रेम प्रफुल्लित हो उठा। जीव...उल्हाला उठा। मेरे मन में उल्लास भर गया। पूगी = पूरी हुई। जल = जल द्वारा। रुति सुभाइ = ऋतु प्रभाव से। झरलागी = वृष्टि होने लगी। मनिका मनिकं = प्रत्येक मन में। सेवग अनिचाई = सेवक व पुत्र से अपराध हो जाय तो अपने पारा = मेरे अवगुणों का कहीं ग्रन्त नहीं। दरबी...नाहा = हे स्वामित्, तुम क्यों नहीं पसीजते। चाहा = देखा, पाया। मेघ...पासा = मेघ के न बरसने पर पपीहा उदास होकर रह जाता है, किंतु समुद्र के निकट नहीं जाता। उहे = स्वाती का मेघ हो। मैं...पाई = अझ निराश को जब निधि मिल गई। पतंग = पक्षी। कबलि तुसारा = कमल पर तुषारपात हो जाता है बास मैमंता = मत होकर गंध ग्रहण करता फिरता है। विरहन्य...भइया = विरहिणी लिए प्रत्येक रात एक युग के समान लंबी जान पड़ी। आतमा...जाई = आत्मा का परिचय पा लेने पर जीव रहस्य को समझ गया। बाजी झूठ = भ्रमात्मक बातों का परित्याग कर दिया। राजा = सुशोभित हो गया।

साखी

सतगुर सवाँ न को सगा सोधी सई न दाति।
हरिजी सवाँ न को हित हरिजन सई न दाति॥१॥