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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२२६

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२१३
प्रारंभिक युग

 

(२)

वही

पड़ीअै गुनीअै नामु सभु सुनीअै, अनभउ भाउ न दरसै।
लोहा कंचनु हिरन होइ कैसे, जउ पारसहि न परसै॥१॥
देव संसै गांठि न छूटै।
काम क्रोध माइआ मद मतसर, इह पंचहु मिलि लूटै॥ रहाउ ॥
हम बड़ कवि कुलीन हम पंडित, हम जोगी संनिआसी।
मिआनो गुनी सूर हम दाते, इह बुद्धि कबहि न नासी॥२॥
कहु रविदास सभै नहीं समझसि, भूलि परे जैसे बऊरे।
मोहि अधारु नासु नाराइन, जीवन प्रान धन मोरे॥३॥

अनभव भाउ = स्वानुभूति का भाव। कंचन हिरन = खरा सोना। बउरे = बावला, पगला।

पाठभेद—'काम किरोध लोभ मद माया', 'याहु कहे मतिनासी', 'चतलि परे भ्रमभोरे'।

(३)

भ्रांति तथा परमतत्व

माधो भरम कैसेहु न बिलाइ ताते द्वैत दरसे आई॥टेक॥
कनक कुंडल सूत पट जुदा, रजु भुअंग भ्रम जैसा।
जल तरंग पाहन प्रतिमा ज्यों, ब्रह्म जीव इति ऐसा॥१॥
विमल एकरस उपजै न बिनसै, उदय अस्त दोउ नाहीं।
बिगता बिगत घटै नहि कबहूं, बसत बसै सब मांही॥२॥
निस्चल निराकार अज अनुपम, निरभय गति गोविंदा।
अगम अगोचर अच्छर तरक, निरगुन अंत अनंदा॥३॥
सदा अतीत ज्ञानधन वर्जित, निर्विकार अविनासी।
कह रैदास सहज सुन्न सत, जिवन मुक्त निधि कासी॥४॥

पट = वस्त्र। रजु = रस्सी। प्रतिमा = देवमूर्ति। इति = द्वैतभाव। वसत = वस्तु। अच्छर = अविनाशी। अतरक = अतर्क्स, जो तर्क वितर्क द्वारा समझ में न आ सके। ज्ञानधन वर्जित = अज्ञेय, न जाना जाने