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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२२७

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संव-काव्य

वाला। जिवनमुक्त...कासी = जीवन्मुक्त महापुरुषों के लिए काशी सदृश आधारस्थल।

(४)

भेद-ज्ञान

ऐसे कछु अनुभौ कहत न आवै, ताहिब मिलै तो को बिलगावै॥टेक॥
सब में हरि है हरि में सबहै, हरि अपनो जिन जाना।
साखी नहीं और कोई दूसर, जाननहार सयाना॥१॥
बाजीगर सो राचि रहा, बाजी का मरम न जाना।
बाजो झूठ सांच बाजीगर, जाना मन पतियाना॥२॥
मन थिर होइ त कोइ न सूझै, जानै जाननहारा।
कह रैदास बिमल विवेक सुख, सहज सरूप संभारा॥३॥

बिलगावै = पृथक् होना चाहेगा।

(५)

आर्चगति

ज्यों तुम कारन केसवे, अंतर लव लागी।
एक अनूपम अनुभवी, किमि होइ बिरागी॥टेक॥
इक अभिमानी चालूगा, विचरत जगमांही।
यद्यपि जल पूरन बही, कहूँ वा रुचि नाहीं॥१॥
जैसे कामी देखि कामिनी, हृदय सूल उपजाई।
कोटि वेदविधि ऊचरें, बाकी बिथा न जाई॥२॥
जो तेहि चाहै सो मिलै, आरतगति होई।
कह रैदास यह गोप नहिं, जानै सब कोई॥३॥

लव = ध्यान, अनुरक्ति। बिथा = काम वासना वा काम की पीड़ा आरतगति = अनन्य भाव के साथ।

(६)

अनन्य भक्ति

संतो अनिन भगति यह नाहीं।
जब लग सिरजत मन पांचों गुन, व्याप्त है या माही॥टेक॥