पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२२९

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२१६ संतकाव्य सो गुरू क जो बहुरि न करना ' ऐसो सगें जो बहुरि न मरना २t उलटी गंग जमुम में लावाँ' बिनही जल संजन है ,पांच ।।३। लोचन भरि भरि बिंब निहारैं। जोति विचार में और बिचा।४१। पिंड पर जिब जिस घर जाता । सबद अतीत अनाहब राता ५५। जापर कृपा सोई भल जाई : यूगो साकर कहा बखाने 11६। सुत्र महल में मेरा बासा। तले जिव में रहाँ उदसा :।७। कह रैबास निरंजन आयाबाँ। जिस घर आवें सो बहुरि म आवाँ 15। वह = पूजन करता हूं । मंजन है = दो नदियों के स्नान का पुण्य है। साकर शराचीनी । परमतचानुभूति (8) गाह गाव अंब का कहि गाऊं। गबन हारको निकट बताऊँ टक। जब स्ण है या तनको आसातब लग करे पुकारा। जब मन मियाँ आस नह तन की, तबको गाबनहारा 1१। जब लग नदी म समुद समावेतब लग बड़े हंकारा। जब मन मिल्यो रामसागर सों, तब यह सिटी पुकारा 1२है जब लग भगति संकतिकी आसापरम तत्व सुनि गार्च । जहें जहें पास धरत है यह मनतह तहें कयू न पावे ।३। छाई आवास निरास परम पदतब सुख सति कर होई। कह रैदल जासों और करत है, परम तत्व अब सोई ।४हैं। हंकारा : टेर, चिल्लाहट : .नि : सुनता है। अत्म निवेदन (१०) नरहरि चंचल है मति मेरी ।भगति कर्दी में तेजे।टेक।’ हैं मोहि देखें हाँ तोरि देखू, प्रीति परस्पर हई। मोहि देखे तोहि न देखूं, यह मति सब बुधि खोई ।।१। सब घट अंतर रमसि निरंतर, में देखन नहिं जीना । गुन सब तोर मोर सब औरुन, कृत उपकार न माना है२है