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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२४२

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प्रारंभिक युग २२९ इनकी भाषा भी इनके भावों का ही अनु सरग करती है और इनकी क्रथनशैली की विशेषता भी इसी कारण, उसके सीधे-सादे एवं स्पष्ट होने में दीख पड़ती है । भक्ति इयों अपनायी (१) गोबिंद गोबिंद गोबिंद संगि नामदेउ मनु लोणा। प्राढ दाम को छीपरो होइज लषणा 1रहा। बुनना तनना तिअग्लैि, प्रीति चरन कबीरा । नीच कुला जोलाहा भइंडे गुनीय हीरा ११। रबिदाडु हु बंता ढोरनी, तितिन्हि तिभागी ।इआा । परगटु होना साधसंगि, हरि दरस पाइओर २। । संजू नाई बुतकारीश्रा, उद् घरियरि सुनि । हिरी पारब्र महि गनिया 1३। बसिया झ आता इ बिचि सुनि जाटरीउलूि भगतो लगा। मिले प्रतषि गुसाई, ना बड़भागा है।४। . . . लाषणठ ==साधारण सी आर्थिक स्थिति का छीपो लखपतो की कोटि का हो गया। गुनीय गहीरा=गंभीर गुणों से संपन्न हो गया। रबिब 9 . .मइआ=ढोरों का व्यवसाय रैदास चमार बिरयस बन गया। कुतकारीअशप्रेमी हो गया । अपनी बात (२) भ्भत फिरत बढ़ जनम दिलानेस्नु मनु धनु ही धीरे । लालच बिशू काम सब राता, मनि विसरे प्रभहीरे ।रहा। विधु फल मीठ लगे मन बउरेचार विचार न जानना है गुन से प्रीति बढी अननांतो जनम मरल फिरि तानिप्र 1१। जुगति जानि नही रिई निवासी, जलत जाल जम फध पर ' बिंघु फल संचि भरे सन जैसे१रम पुरष प्रभ सर विसरे ,१२। विआन प्रबेस गुरह धनु दी, बिना मातु मन एकमए । प्रेम भगति समान सुषु जानियात्रिपति श्रघाने मुकति भए ५३है।