२४८ संत-काव्य कंचन के कोट बसु की बहू हैवर गैबर दम । भूमि दातु गऊमा घणी भी अंतरि गए गुमाए । राम नामि मनु बेधिआर गुरि दीक्षा सलु दातु 1४३ सन हम दुधी जेसीआर को खेद चार ! झते बंधन जी के गुर मुखि मोल कुमार। सचढ़ उर स को परि सघु आचारू १५ ।। सधु कोड द अखंभे नीचे न द: कोइ । इकने भछे साजिर्न इ चनणु सिद्ध लोइ । करमि मिल सx पाई घु रि परबसम नेटे कोइ है।६। साधु मिले सांध जन सलेड बस शुरभद। अकथ कथा विचारों के सदि गुर साहि समाइ । पी अन्तुि संतोविधा दर रहिये धांजाइ १७' घटि घटि बाजे किंतु री अमदि सब द सुभइ? बिरले कंड सोती पई, गुरुमुद्धि संतु समझाई। नानक मस न बीसई छठे सबई दमा ॥८३। बैसतर-=अग्नि में । संचलि-= हिमालय में 4 फिठी-=जाँच लिया । दतु=दातव्य -उ==उबरता है। भो ==फिर भी। विनय (१७) काची गागरि देह इह ली, उपजे विनर्स दुख पाई। बहु जणु सागर कुतर किए तरो, बि हरिपुर पार न पाई ।। तु बिनु अवरु न कोई मेरे पियरेतु बिनु अवरु न कोई हरे। सरबी रंग रूप टू है, तिस बरबसे जिसु नबरि करे ।रहाउ । सांतु बुरी धरि बारु न , पिंर सिड मिलणनदेइ छुरी। सखी साजनी के हड चरमन सरेवड हरितु र किरपा ते नदरि धरी ।२३ अ2 बीच रि मारि मनु खिग्रा, तुमसा मोडू न अवरु कोई। जिड टू राह ति ही रहा, टुसू सूख देवहि करहि सई ।।३।
पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२६१
दिखावट