पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२७६

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संध्ययुग () पूज २६३ लिखी लिषि, मंत्रादि के अक्षर। पढेश परिणाम (७) पूरे गुरते बड़िआई पाई। अचत नाजु बसिमा मनि आई ॥ हुउ माइआ सबदि जलाई। दरि सावै गुर ने सोझा पाई ।।१।' अगंदीस संवड मैं अयह म काजार। अनवितु अनडु होवे मनि रे, गुरमुखि सगड तेरा नामु निवाजा गेरहाउt सन्न की परतोति सनते पा। यू रे गुर से सबदि बुझाई है। जीवण सरणु को समसर वेलें । बहूड़ेि न मरे नाजसे है।२॥ घर ही महि सभि कोट निधन । सप्तरि दिखाए गइन अभिमतु। सदही लागा सहजि धिमान' अनदिंतु गावं एको नाम ३। इस जुग महि बड़िआई पाई। पूरे गुर से ना घिनाई है। जह देखा त: रहिया समाई। सदा सुखदाता की मति नह पाई 1४है। पूरे भाग गुरु ा पाइआ। अंतरि नासु निधानु दिखइओ ! गुर का सदु अति मोठ लाइ प्राई नानक किसन बुझो मनि तनि सुषु पाइन ।। दरिसर्च =समय के सामने। निबाजा=अनुग्रह । समस्तरि देखें =एक समान जाने । सनि कोट निधन सभी प्रकार के उत्तमोत्तम पदार्थ । ही सब कुछ करता हैं (८) जह वे सालहि तह वैसा सुआयीजह भेहि तह जावा ॥ सभ नगरी महि एक राजासने परि हहि थावां 1१। बाबा देहि बसा सच गाव। जाते सहले सहज सभावा Iरहा। बुरा भला किg आपसते जानि, एई सगल विंकारा ॥ इg फुरसाइमा खसम का होआ, बरते शहु संसारण ५२)। इंद्री धातु सबल कहातु है, इंद्री किसते होई॥