पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२७९

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२६६ संत-काव्य साखी मन मु व मेलो कामणो, कुलषण कुनारि । पि५ छोडिया घर आ पह, पर पुरखे नाल पिआर 1१। सिना कद न कई जल दो करे पुकार ॥ नानक बिनु नावे कु इवि कुसो गोपरहरि छोड़ो आंतरि है। सबदि रसो सोहागणो, सतिगुर के भद्द पिनारि । सदा राजे पिघु आपणा, सचे प्रेमि पिनादि 1३। हंसा के शेि तरंक्षित्र, बगहfभ आया थाछ 13 खूबि ए वग बपुड़सिर तलि उपरि पाउ १४ । मैं बिच्चि समु अताह है, निरभद्र हरिजोड सोई। सतिरि रवि हरि मनि बसे, दिशें भरू कद न होइ 1५। इसजगमहि पुरक्षु एकुछ है, होर सगली नारि सवाई ॥ सभि घट भोगवं अलिरु रहै, न लखणा जाई ६। हरि गुण तोटि न अबई, कोमति कहए न जाइ ।। नानक ग र म कि हरिगुण रवहि, गूण महि रहे समाई। धन िएहि म अखिअहि, बहरिह इकटे होइ। 'एक जोति इइ मूरतो, घन पिघु कही: सोइ ।। आासा मनसा जगि महणो, जिईन सहिआा संसार है। सको जमक्ष चोरे बिचि है, जता स, आकारु ।। सहजि बण सति फ ल फल, भवरु बसें मैडि॥ ‘नानक तरवह एक है, एको लु फिर ॥१०॥ मनु माणकु जिनि परखिया, गुर सबबी बीचार । से जन विरले जाण प्रहि, कलजुग बिचि संसारि ।११।' अद नो अ9 मिलि रहि, हडमै दुविधा मारि । नानक नामि रहे कुतरु तरलठ ज विषमू संसार 1१२। पर. . पिप्राय अन्य पुरुष के हो प्रति प्रेम दिखलाती ७ ७