सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मध्ययुग () २६है चोंच माश फल भांजिया, फल अमृत सारा ।४। । तुम तो वृक्ष हम देलड़ी, मूल से लपटाना। कह सिंगा पहचा ले, पहण ठिाणा ५ । ने ==निकट में ही। जा -जान रहा था। रहगी.. . = ई वास्तविक नाचरण से हो मुझमें शक्ति आई खवा=सहारा दवाड सराहनों में रोड़ा समय लगाया जाने वाला भिश्न धातु का अंश, यहां सांस रिकता का दोन' घxt =ा, सूर्य को धूप। छोडा-ठसाधारण सा पक्षी। भांजिया बिगाड़ दिया। चेतावनी (२) मन निर्भय कंसा सोचे, जग में सेरा को है ।प्टक।। काम क्रोध में अतिबल योधा, हरे नर ! विख का बी क्यों बोवें 1१। पांव रिख तेरी संग चलत हैं, हरे वो : जड़ा मूल से खोले। मात पिता ने जनम दिया है, हरे वो ! जिंथा संग न जोये ।२ा। भर भरस नर जनम गमयोहरे ! ये आई बी खोये । कहे जन सिंगर असम की बाणीहरे नर ! अन्त काल को रोवे ।३है। जोबे =आसा न देख । बालू =बाजी, अवसर1 अगस को बापी रहस्य की बात। आनास्थरत। (३) संगी हमरा चंचला, कसा हाथ जो आइये, काम क्रोध विख भरि रहए, तइसे बुख पावे ।टेकहै मट्टी केरा सीधड़ा, पवन रंग भरिया, पब पलक घड़ी थिर नहीं, बहु फेरा फिक्रिया 1१॥ आया था हरि नाम को, सो तो नहीं है बिसाया, सौदा तो सच्चा नहीं, झूठा संग कोया ।२ चुरत नगारा शून्य में, ताको सुध लीजे