पृष्ठ:संत काव्य.pdf/२९८

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मध्ययुग (पूर्व) २८५ सुमिरन। (१) राम ना नहि शांत भाई, प्राण त निकट जिव जाई !टक। ती रती करि डाएं मोहि, सांई संग न छड तोहि 1११। भावे के सिर करवत दे, जीवनसूरी न बांडों से २t पाव में ले उः मोहि, जरे सर न छड तोहि 1३। इव बादू ऐसी बनि आईसिलौं गोपाल निसान बजाई।४१। निकटि.. . जाई =राम के पास ही मेरा जोव जायगा। चिरह (२) क्याँ बिसरे मेरा पीब पियाराजोव की जीवनि प्रण हमारा ।टेका। क्यों करि जीवे मीन जल बिरेतुम्ह चिम प्रांiण सनेहो। अयंतामणि जय करणें , तब दुष पार्थ देही 1 १। माता बालक दूथ न देखेसो कैसे करि पीछे। निर्धन का न अनत लांनां, सो कैसे करि जीये ५२है। बरसहु राम सदा व अमृत, नीझर निर्मल धारा। प्रेम बियाला भरि भरि दी, दादू दास तुम्हारा 1३है। बिना (३) अवयू कामधन गहि राषी । बसि कोन्ही तब अमृत सरलै, अमें चरि न नांवो टेक।। पोखेतां पहलो उछे गर, पीछे हथि न नावें। भूषी भलें दूध नित हूण, यू या बैन वुहावै ।१३। ज्यूं ब् घोंण पड़े त्यू डू, भूकता मेल्यां मारे। घाटा रोकि बैरि घरि अं, बधी कारज साहु ।२? सड़कें बांघी कई न छूटे, कर्म बंधन दुटि जाई। काट कर्मो सह स बांधे, सहशें रहै समाई 1३।