पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३००

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मध्ययुग (पूर्वार्द्ध) २८७ स मरिकटेि जा कलि जहणि जाई, तहां न मेरा मन पतिआइ १। आगे जन्म लह ओतारातहां न मांगें मना हमारा है।२५ तन छूट गति जो पद होइ, स्तक जीव मिले सब को 1 ३। जीवत जम्भ सू फल करि जांनां, दलू राम मिले नम मांन !४ा। (६) औमें (ह में क्यूं न रहूं: मनसा बाचा राम कहै ।टेका। संयंति ब्रिपति नहीं में , हरिष सोक बोर्ड नहीं। रर दोष रहित व दुष थे, बैठा हरिपद नहीं भ१५ लनधन सया मोहन जी, बैरी मील न कोई। अापा पर समि रहै निरंतर, निजजम सेवग सोई ३२? सरवर कवल रहे जल में, दधि समथि वृत करि लीन्हां। जैम बनमें रहै बटाऊ, का हेस द कोन्हां 1३३ भाव भत रहूं रसिमाना, प्रेम मन गुन गाई। जब मुक्त होइ जन बट्टू, अर अपद पावे ।४।। सें ऐसेइस ढंग से । रगदोष =ररदूष । समि =एक समा, समन भाव के साथ ' ब्रटाऊ-=बटोही। काहूं. . . कोन्हां किसी से भी अक्त का भाव नहीं रखता। ७) अलह संल छूटा भ्रम मोरा। हिंदू तुर भेद कछु नाही, देध बरस तोरा ।टेक।। सोई औण व्यंड पुमैिं सोई, सोई लोही मासा। सोई मैन नासिका सोई, सहवें कीन्ह तमास है११?' श्रवणौं सबब बाज़ता , जिन्या मीठा लाई। सोई भूख सबन का व्यापे, एक ज़ गति सोइ जारी है२। सोई संधि बंध चुनि सोई सोड सुथ सोई पोरा। सोई हस्त पाब पुनि सोई, सोई एक सरा ३है।