पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३०४

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मध्ययुर (पूर्वार्द्ध) २६१ मूति मन है बसें, सड़कें सांस संभरि है।११। दास राम अगाध है, परिमित नहीं पार । अबरण बरण न जांणिये, दादू सइ अधर ॥ १२५ सौंण निर्गुण दें रहें, जैसा है तैसा लोन । हरि सुमिरण त्यौ लाइये, का जाप का कोन ११३ गांव सपीड़ा लोजियेप्रेम भगति गुरु ण गइ । बाढ़ सुमिरण प्रीतों, हेत सहित ल्य लाइ ५१४है। बाढ़ रामनाम सबको कहे: कहिये बहूत वमेक। ए अनेक फिरि मिलेए सस एक क१५। सुमिरण का संसता रहा, पछिलावा सन मांटूि । बाद मीठा राम रस, सगला पीया नांहि 1१६। । आ गति योम ज्याँ नोकलं, देखत सब बिस्लाइ । त्यों मन बिछुड्या रामस, दहदिसि बीरि जइ 41१७ जहां सुति तंह जव हैं, जहूं नाहीं तह नाह । गुण निर्गुण जहं , दादू घर बन मांहि tt१८। ससे सांस =अनन्य गत्ति , निरंतर : अवरण ..जानिये न्अ य । सपीड़=गहरी अनुभूति के साथ। विचार दादू आपा उरलै उरतियाबीसे सब संसार। आयरों सुरजें सरभिया, यह गुरशान विचार ५१थे। जब समइया तब सुरक्रिया, उलटि समान सोझ। कल कहाई जब लगे, तब लग समति न होझ At२०। के प्रति पोछे उपजेसो मति पहिली होझ । कबहूं न होवें जी दुषी, दाह सुखिया सोई है२१it कलू . . , लगे =आपा के कारण पृथकबू का भाव से पीछे . . .पहिलोः = कार्य के पश्चात् तथा पूर्व।