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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३२९

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३१६ संत-काव्य बंधन से मुक्ति हंसा बाझन मोर याह घराकरबों में दनि उपाय । मोतिया चुगम हंस अयल हो, लो तो रहल भुलय ॥ भोलर को बकुला भयो है, कर्म कीट धरि खाय। सतगुरु सत्य दया फियो, भवबन्धन ले लियो छोड़ाय । यह संसार सकल है अंध, मोह मया लपटाय। बीरू भक्ति भयो हंसा सुख, सागर चस्यो है नहाय 1१। हंसा ==जीवात्मा से बाभलफंस गयाबंधनों में पड़ गया । याहि घरे = इस जगत में । झोलर -झीलताल 1 सागर समुद्रआत्मानुभूति। अंतसाधना त्रिकुटी के नीर तीर बांसुरी बजावं लाल, भाल लाल से सबचे सुरंग रूप चातुरी। यमुना ते और गंग अनहद सुर तन संग फेरि जगमग को छोड़ देव कादरी t बाय प्रचंड चंड बंकनल मेरुदं, श्रनहब को छोडि दे आगे चलु बाबरी। कार चार बास इनहूं का है बिनास, बसन को साथ करु चीन्ह ले तू नाहरी है। जन बिरू सतगुरु शब्द रकाब , चल शूर जीत मैदान घर आदरी ।२" निकुटी=इड़ा, पिंगला तथा सुषुम्ना माड़ियों का संधिस्थल नीर तीर के किनारे, उस बिंदु पर ध्यानस्थ होने की दशा में। बांसुरी. लाल-अनाहत की ध्वनि सुन पड़ने लगती है। काइरी= कादरता । वक नाल =त्रिकुटी के नारों का एक टेढ़ा मार्ग । मेरुदंड =रीढ़ की हड्डी । ख़सम