पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मध्ययुग (पूर्वार्द्ध) ३२१ सब अपने उनम को साषि कह पथ काबि । जिह लागे पर अरल, सो अपने कर ढावि ।। वे साधू करि जानियेदरसन सब सुख होड़ है। जिह परे लोहा का , पारस कहुिये सइ 1५ दोइ ने गी सब देविया, तीम त्रिगुण सब सोवि है ताँ हूंण तजि एक भजि, अप्तम को परमोधि 1६। सुकृत =सत्कर्म, जानि=समझ-कर । उनमन ==अनुभव, पहुँच ' कवि --काव्य ' अख-अंतःकरण तक । कि सुरक्षित रहे। दimणी - =तभाव के साथ। तीन त्रिरु ण -=त्रिगुणात्मिका वृत्ति के नौहूणा व इंटर के विषय भोग । परमोधि=शिक्षा दे। संत हरिदास निरंजनी संत हरिदास निरंजनी को, दादसंय की परंपरा के अनुसार, दादू शिथ प्रागदास (मु० सं० १६८८) का शिष्य बृहराया जाता है। और इनका, उनसे दीक्षित होने का, समय सं० १६५६ वतलाया जाता है । उन प्रमाणों के आधार पर इनकी मृत्यु संe १६७० में हुई थी। और अपने अंतिम समय तक ये प्रागदास के अनतर स्वयं दादू के शिष्य बनकर क्रमश: कवीर एवं गोरखपंथ में भी आ जा चुके थे । निरंजनी संप्रदाय का प्रचार इन्होंने नाथपंथ में आने के कुछ दिनों पीछे किया था । परंतु निरंजनी संप्रदाय के अनुयायियों का कहना है कि ये राजस्थान प्रांत के डीडवाण परगने के काषड़ोद गांव के निवासी थे एवं जाति के क्षत्रिय थे और इनका नाम हरिसिंह थाT से ४५ वर्ष की अवस्था तक गाहस्थ्य-जीवन व्यतीत कर लेने पर दुर्भिक्ष पड़ने के कारण इन्होंने अपना निवासस्थान छोड़ दिया और अपने कतिपय मित्रों के साथ बन में जमकर लूटपाट करने लप । वहीं संयोगवश इनकी भेंट किसी नथपंथी महात्मा से हो गई जिसने इन्हें मंत्रोपदेश देकर २१