पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३३७

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३२४ ल- राम नाम जुत हिरद धा, परम उदार मिसख न बिसाफ 1३है। गाय गय गाबेथा गाया, मन या मदन गगन ठ छाया है।४। जन हरिदास आास तजि पासा, हर नियुथ निज पुरी निवासा !! ने र। अपन) निजपुरी =परम पद। अकथनीय (४) रूप न रेव घटू नह थोड़ो, बरणी गगन फूमि ही रे । अकल सफल संग रहे नि रंतरब्यू चन्दा जल महो रे ।टर'। अगम अथाह थाह नह कोई, थाह न कोई पाये है। जैसा भजन तिसा सब कोई, मम् उनमना बताये रे 1 १। सागर में कुंभ कुंकुंभ में जल है, निराकार निज ऐसा रे । सकल लोक ऐसे हरि सहींहम कहो कैसा रे ।२। अचल अधष्ट सब सुख को सागर, घट घट सवा माही रे। जन हरिबास अविनाशी , कहे तिस हरि नही रे है।३। घ . . , थोड़ो=अधिक न कम। उनमन्नांडअनुमान के अनुसार ? अबष्ट ==जो निमित न किया गया हो। सच्चा । (५) सखी हो मएस बसन्त विर, गोपी ग्वाल घेर गोकुल में वे मधुर धुन बाई टेर। धागे सुति पांच नग गूथया, मम मोती मधि आया । बिरासत काल परममिधि परगट, हरिर्ल हार चढ़ाया ।१। गरब गुलाल चरण तलि ध्या, अगर अबीर खिड़या। परमल प्रीति परसी पर पूरण, पिधमें प्राण समयर +२। चक नालि निहंचल नौ निरीए कौतूहल भागे। जन हरिदास मानद निज नगरी, खेल फाग मुरारी १३। पांच नग =पंच इन्द्रियों को। टूरचक - दूर चू र कर दिया। । ईखड़ाया =बिखेर दिया। नकदव, नवीन।