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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३६६

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समयुर (पूर्वार्द्ध) ३५३ । के पीछे स्वानुभूति व निर्दे हता की ऋकिन काम करती हुई जान पड़ती है ? ये स्वभावतः निों तथा निश्चित समभ पड़ते है । इनकी भाषा में चिलष्ट शब्दों का अब सा । है और इनकी व शैली में आज एवं प्रसाद का अच्छा समावेश पाया जाता है । 4 पद अलुपर सतगुरु (१) हमारा सतगुरु विरले जाने से सुई के ना सुमेर चलाईसो यह रूप बखा 1१॥ को तो जन दास कबीर, की हरिनाकस पूता। को तो नामदेव ने नानक, को गोरख अवधूता।२। हम गुरु को श्रद् त लीला, ना कछ खाय न पीपै। ना बहू सोचे ना वह जासां, खा. वह मर न जावे ।३। बिन तरवर फल ल लगा, सोतो बाका वेलर। लिन में रूप अनेक घरत हैं , छिन में रहे नकला।३।। बिन दीपक पैंजियारा देखें, ऐंड़ो समुंद थहारी। चटी के पग कुंजर , जाको गुरू लखावे 1५)। बिन पंखन उड़जाथ अकालेबिन पंखन उड़ेि श्रावै। खोई शिष्य गुरू का यारा, सू तब चलाये ।६।। बिन पायन सब जम फिर आवेसो मेरा गुरुभाई। कहे बलिहारीजिन यह जुगति बताई ।। अल ताकी हरिनाकस पूतr-=ह्वाद। (२) अप खोजरे जिय भाई । अपष खोजे त्रिभुवन सूदअंधकार मिटि जाई ११17 २३