पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३८

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पड़ती है। ईड़ा एवं पिंगला सुषुम्ना के साथ लिपटी हुई सी प्रतीत होती है। उनमें से पहली का अंत बायीं नाक तक एवं दूसरी का दाहिनी नाक तक हो जाता है। नाक के मूल भाग अर्थात्, दोनों भृकुटियों के बीच वाले स्थान के आगे इन दोनों की भी शक्ति का प्रवाह सुषुम्ना द्वारा हो होने लग जाता है। सुषुम्ना वहाँ से आगे की ओर कुछ टेढ़ी सी होकर बढ़ती है। अंत में, हमारे मस्तिष्क के भीतर उस उच्चतम भाग तक के के निकट पहुँच जाती है जो 'ब्रह्मरंध्र' के नाम से प्रसिद्ध है और जो अपने नामानुसार ही, 'सत्' के मूल स्थान के लिए कल्पित किये गए, किसी सूक्ष्म छिद्र का द्योतक है। संतों ने सुषुम्ना के उक्त ब्रह्मरंध्र को 'वंकनाल' की संज्ञा दी है और ब्रह्मरंध्र के लिए एक अन्य नाम 'भंवर गुफा'[१] भी बतलाया है। सुषुम्ना नाड़ी के इस लंबे मार्ग में कई ऐसे स्थल भी मिलते हैं जो विचित्र ढंग से बने हुए हैं और एक प्रकार से उसकी क्रमिक उर्ध्व गति को सूचित करते हैं। ये संख्या में सात हैं और नीचे से ऊपर की ओर क्रमशः मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपूरक चक्र, विशुद्ध चक्र, अज्ञा चक्र एवं सहस्त्रार के नाम से प्रसिद्ध हैं। योगियों के अनुसार इनकी रचना कमल पुष्पों के रूप में हुई है जिनमें क्रमशः केवल चार से छः, दस, बारह, दो तथा सहस्रों तक दल हैं और जिन के रंग, रूप एवं प्रभावादि में बहुत अंतर लक्षित होता है। मूलाधार चक्र का स्थान सुषुम्ना के सब से निचले भाग वा उसके लगभग प्रस्थान बिंदु के ही निकट है और स्वाधिष्ठान चक्र की स्थिति लिंग के मूल भाग में है। मणिपूरक, इसी प्रकार,


  1. देखिए ‘बंकनालि के अंतरै, पछिम दिसा की बाट।

    नीझर झरै रस पीजिए। तहाँ भँवर गुफा के घाट रे॥

    कबीर ग्रंथावली पृष्ठ ८८ (पद ४)।