पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३८३

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३७० स-क सत्संग किया करते थे । ऐसे सभी व्यक्तियों के प्रति ये पारिवारिक स्नेह प्रदर्शित करते थे और सुंदरदास जी (छोटे ) इनके लिए परम प्रिय अनुज क के रूप में थे। रबजी का अनुभव बहुत व्यापक था और इनकी भक्ति में सूफी लोगों की मस्ती भी दीख पड़ती थी । कहते हैं कि अपने गुर दादूजी का देहावसान हो जड़ने के अनंतर इन्होंने अपनी आंखें बहुत कम खोली थीं। जनश्रुति के अनुसार इनका संवत् १७४६ में देहांत हुआ । रज्जवजी एक उच्चकोटि के संत होने के अतिरिक्त अच्छे कवि भी थे। इनकी बाणियों का संग्रह प्रकाशित हो चुका है, किंतु उसका संपादन अच्छे ढंग से नहीं हुआ है और इनकी अनेक रचनाएं बहुत कुछ विकत रूप में दिखलाई पड़ती। हैं। बंबई से प्रकाशित हुए उस, संवत् १९७५ वाले उपलब्ध, संस्करण में इनकी साखियों की संख्या ५४२८ जान पड़ती है और ये १९४ अंगों में विभाजित होकर संगृहीत हुई हैं। इन साखियों के अतिरिक्त, उक्त संग्रह में, इनके २१८ पद, ११६ सवैये८३ अग्रिल८९ छप्पय तथा कुछ निर्मवी खुद की भी फूटर कविताएं प्रकाशित हैं और छोटी-छोटो बावनी, अविगतिलीला, जैसी १३ अन्य रचनाएं भी आ गई है । रज्ज्बजी ने अपने गुरु दादूजी की रचनाओं को क्रम देकर उन्हें भी अंगबंधु' के नाम से संग्रहीत किया था। इन्होंने बहुत से अन्य संतों तथा महात्माओं की वाणियों को भी विषयानुसार एक कर उन्हें अपने सगीनामक वृहद् ग्रंथ में संग्रहीत किया था। सर्दगी में रज्जवजी के न केवल अथक परिश्रम एवं मनोयोग का परिचय मिलता है, बल्कि इनके गहरे ज्ञान, प्रेम तथा पाण्डित्य का भी पता चलता है । रज्जबजी की रचना की एक बहुत बड़ी विशेषता इनके दृष्टांतों के प्रयोग में पायी जाती है जो इनके विस्तृत अनुभव एवं गंभीर चिंतन को प्रकट करती है ।