पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३८६

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मध्ययुग (उत्तराई १७३ अलबत हुई जो पेठी, सो बाशि न सिबाब ॥ रज्जब रहे रामस मन , सम रथ ठौर सुभावै ।३' तावsप्रवेश कर जाता है। बल : बट जाता है। बबूला=बगूला, बवंडर। छहनोक्षोणी, पृथ्वी । कमल केतकी क म स्ल कोश में । बीधे : = बँध जाता है । अम्लदेतन्यवसल्वेत का व फल जिसमें सुई गल जाती है । बागे न -=नहीं चलती। (६) संतो अगन नया सन मेरा है। अहनिशि सदा एकरस लागा, दिया दरीदें डेरा टेका। कुल मयब मेंड सब भागो, बैठा भrठी में है। जांति पांति कछ समझ नाहों, किस कर परेरा ॥ १। रसकी प्यास आस महि और, इदि मन किया बसेरा । पाब भाव यहो लय ल(गो, पोखे फू ल धनेर ।२५ सो रस सांग्या मिल न काहू, सिरसाबहुरा। अल रज्जव तन सन दे लोया, होय धणी का चेरा ३! दरीब =चौरह पर १ सिरसाठ-शिर देकर। स"सार गुरु (७) सो गुरु संसार यहसंण सम िविचरा । जे चाहे उपदेश को, तो पूछ पसारा ।टेक। । चौरासी लख जघ की, लछिन माह माया मिली सरदि गयेपर मेले नही ।। १। अबल मता उर लीजियेगिरि तरवर ताकीं । जह से तहाँ रहि , न सतगुर साडी म२क चंद सूर पाणी प्रबन, धरणी नाकास रज्जब समिता पूछले, ष दर्शन पासा है।३। मरदि श6-2 गये।