पृष्ठ:संत काव्य.pdf/३८७

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३७४ संत- व्य आरती (८) ग्रारती तुम ऊतरि रो। मैं क . नहिं कहा कई में से टेका। थ भगति सब तेरी दोहीतारि सेव तुम्हारी कीन्ही।१। मन चित सुरति शब्द सब ता, सो शुभ तुमो पर फेरस ॥२। आत्तम उपजि सोंज सब न ते, सेवा शकित liहै कल हमसे ।३।. आवेह प्राणपति पूजा, रजब नाहि करन को दूजा t४१। साज-सौ, उपकरण, सामान। साखी । सतगुरु जन रज्जब शुरु की दया, छिट पराप्ति होय। परगट गुपत पिछनियेजिसहि न दोहे कोय 1१। सया पानी व मन, मिले रु .हुकम चंधि ॥ जन रज्जब बलि दस 6, सोधि लही सो संधि 1२ा। घटा गुरू लाशोज को, स्वाति गेंद सप्त बन। सहिप सुरक्षित सरथ सहित, त, मुक्ता सन ऐम ५३। जन रज्जब गुरु ज्ञान ज्ल, सोंचे सिख बनराय। लघु दीच्य अरु स्वादबिध, अंकूर स्वभाव ५४। सेवक कुंभ कुंभार गु, घड़ेि घईि कारें खोट । रज्जब सहि सहाय करि, तब बाहिर दे चोट ।५)। चंद सूर पणी पवनधरती अरु अाकास ॥ ये सांई के कहे में, रयू रजब गुरुदास १(६। (२) हक म ==मले प्रकार से। संधि -पक्थ का श्राधार। (३) अशोज आश्विन मास । ऐन ठीक , उपयुक्त। (५) खोट : = दबा हुआ, बुरा।