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भांति, अपने इष्टदेव का गुण-गान करना ही रहा। वे इन्हें आत्मचिन्तन एवं स्वानुभूति के आधार पर समय-समय पर निर्मित करते गए थे। इस प्रकार, इनकी रचना विशेषतः उनके व्यक्तिगत उद्गारों अथवा उपदेशों के ही रूप में हुई थी और इनका जो कुछ भी महत्त्व है वह केवल इसीके अनुसार समझा जा सकता है। संतों में से अधिकांश को पूरी शिक्षा नहीं मिली थी और न वे काव्यकला से किसी प्रकार परिचित ही थे। अपने वर्ण्य विषय की तीव्र अनुभूति एवं मत-प्रचार की अभिलाषा ने उन्हें पद्यात्मक रचना की ओर प्रवृत्त किया था और उन्होंंने इसे अपने ढंग से निबाहा था।

संतों ने इन रचनाओं में भरसक अपने पारिभाषिक शब्दों के ही प्रयोग किये हैं और अपने भावों को, अपनी शैली विशेष के ही माध्यम से व्यक्त करने की ओर प्रायः सर्वत्र ध्यान देना उचित समझा है। यह बात पहले के संतों में विशेष रूप से उल्लेखनीय है और आधुनिक संतों में से भी कुछ ने पूर्व परिचित शब्द-भंडार से ही अधिक लाभ उठाया है। किंतु मध्ययुग के संतों में से अधिकांश ने उन रचना-शैलियों को भी अपनाया है जो उनके समय में प्रचलित थीं। अतएव संतों के पदों एवं साखियों की रचना-शैली का अनुकरण जहाँ पहले क्रमशः कृष्णोंपासक भक्तों तथा सूक्तिकारों ने किया था वहाँ रीतिकालीन संतों ने दूसरों के अनुकरण में कवित्त-सवैये आदि छंदों को भी अपना लिया और कभी-कभी भाषा चमत्कार के प्रदर्शन तक की ओर प्रवृत्त हो गए। फिर भी उन्होंने अपने प्रधान विषय को सदा ध्यान में रखा और वर्जन शैली के फेर में पड़कर भी, उसे भरसक अपने शब्दों द्वारा ही प्रकट किया।

वास्तव में, संतलोग साहित्यिक नहीं थे और न उनकी रचनाओं को साहित्यिक मानदंड के अनुसार परखना ही उचित है। उनकी भाषा में व्याकरण संबंधी अनेक दोष मिल सकते हैं और उनके पद्यों में छंदोनियम का पालन बहुत कम पाया जाता है। उनके साधना-संबंधी विवरणों