पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४०१

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३८ संत-काव्य गोंडt-रगवरैल । निज .. .कहिये=जोबन्मुक्त की दशा वास्तविक मुक्ति है । (५) देष भाई ब्रह्माकाश समान। परब्रह्म चैतन्थ व्योम जड़यह विशेषता जान ।टेक।। दो व्यापक प्रकल अपरिमिति, द सदा प्रखंड। दोऊ लिएँ छिप कहूं नाहों, पूरन सब अहण्ड 1१। वह माह यह जगत देवियत, व्योम माह घन यही। जगत अ उपकें अरु विनलैंवे हैं ज्यौं के त्यौंही ।।२है। दोऊ अक्षय अरु अविनाशो, दृष्टि मुष्टि नइ आवें। बो नित्य निरंतर कहिये, यह उपमान बतावें ।।३। यह तौ येक दिखाई है रुध, श्रम मत भूलहु कोई। सुन्दर कंचन तुल लोह संव, तौ कहा सभर होई।t४। आल=, बंदल ! साखी प्रीति सहित ज हरि भटैंतब हरि होहि प्रसन्न । सुन्दर स्वाद में प्रीति बिन, भूष बिना ज्याँ अन्न ११। जौ यह उसक सैं रहूं, तो वह इसका होय। सुन्दर बात ना मिलेजब लग आप न धोय१२। अषणां सारा कछ नहीं, डोसे हटिके हाथ। सुन्दर डोले बांदा, बाजीगर के साथ ३। सुन्दर बंधे देह सौं, तो यह देह निषिद्धि। जौ याकी ममता तबं, तो याही में सिद्धि १४। पाप पुण्य यह में कियाँ, स्वर्ग नरक हूं जाऊं। सुन्बर सब कछ मानिले, ताहोतें मन नांड ५।