करते हैं। वे उसमें दया दाक्षिण्यादि गुणों का आरोप करते हैं, उसके प्रत्यक्ष न होने पर विरह के भाव व्यक्त करते हैं और उससे मुक्ति की याचना भी किया करते हैं। फिर भी वे केवल भजन भाव में ही मग्न रहने वाले 'भक्त' नहीं जान पड़ते। अपने व्यक्तिगत जीवन में सदाचरण संबंधी सामाजिक नियमों का पालन करना भी आवश्यक मानते हैं और उन्होंने अपनी रचनाओं में इस पर पूरा बल दिया है। वे लोग पक्के प्रवृत्ति मार्गी एवं कर्मठ व्यक्ति हैं। इस बात को उनमें से प्राय: सभी ने अपने गार्हस्थ्य जीवन द्वारा प्रमाणित किया है। उनकी उपलब्ध रचनाओं द्वारा प्रकट होता है कि उनका आदर्श एक जीवन्मुक्त कर्मयोगी का आदर्श है।
उनके अनुसार, सत् के साथ मनोवृत्ति के उपर्युक्त प्रकार से तदाकार हो जाने पर साधक की विचारधारा आप से आप परिवर्तित हो जाती है। उसमें पूरी उदारता एवं व्यापकता आ जाती है और उसके दैनिक आचरण एवं व्यवहार में कोई संकीर्णता नहीं रह पाती। इस प्रकार का संत सदा आनन्द के भाव में मग्न रहा करता है। अपनी प्रत्येक चेष्टा द्वारा परोपकार में निरत रहता हुआ, विश्वकल्याण का भी साधन बन जाता है। वह जो कुछ भी विचार करता है उसमें पक्षपात वा द्वेषभाव का प्रभाव नहीं रहा करता और न वह जिस ढंग से रहता है उसमें वाह्माडंबर ही दीख पड़ता है। इस प्रकार का निर्वैर, निष्काम, शुभचिंतन एवं आत्मानंद का जीवन ही संतों के अनुसार सात्विक जीवन है और यही उनका आर्दश है। इसमें स्वानुभूति, विचार स्वातंत्र्य, आत्मनिष्ठा, कर्तव्यपरायणता तथा सदाचरण को सबसे अधिक महत्व दिया गया है। कपट, स्वार्थ, सांप्रदायिकता एवं वाह्याचार जैसी बातों से सदा दूर रहने का परामर्श भी दिया गया है। संत लोग अपनी रचनाओं में बराबर इसी बात पर