पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४१७

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४०४ सत-काव्य बिडारे मतवाले हाथियों के समान इंद्रियों को भी अभिभूत कर देता है । निजी अनुभव (9) काहि से कहों कयू कहिबो न जाय ।टक। चरन सरम सुमिरन जिन्हि दीन्ही। बिनु ससि विपरित अंक बनाय 1१। बिलु बाजन प्रति सबद गहामहि। सुनि सुनि पुमि पुनि अधिक सहाय ।२॥ त्रिकुटी के ध्यान पेहान उधर गयो । जामग जगमग जोति जगाय 1३ सनमुख रहलि सलोनी मूरति, तेहि देखत जियरा ललचाय ।४ा। रवीदत तास जम बलि बलि, जे रघुनाथ के हाथ बिकाय है॥ बिनु . . , बनायज =उसी ने बिना स्याही के भी कर्म को विपरीत रेखाएं बना दीं। पेहान =ढक्कन, आवरण। विचित्र भूलन (१०) प्रति अदभुत एक रु खवारेजितकित विपत डार। गुरु गम लागल हिंडोरबा रे, चहुं सन रजकुमार ५१। मझनझोर्राह लगिलारे, प्रेम की छोरि सुढार। पांच सखी संग झ लहूं , सहजे उठत झझार है२है। अरथ उर ज्ञकि भूलह रे, गहि महि अधर अथार। बिन्तु मुख मंगल गावह , बिनु दीपक उजियार ५३।॥ भरनी जन सुन गाइथा रेपुलकित बारंबार। जो जन चढउ हिंडोलवा रे, बहुरि में उतरनहार४n