४१८ संतकाव्य में हो रहते समयसं० १८१० में हुआ था जहां पर इनकी समाधि आज तक बनुमान है । संत बुल्लेशाह की विचारधारासूफ़ीमत की ही भांति, वेदांत के सिद्धांतों से भी बहुत कुछ प्रभावित थी । ये कबीर साहब के समान विचार-स्वातंत्र्य में विश्वास रखते थे औरउन्हींकी , बह्माडंबर के कट्टर विरोधी भी थे । मस्जिद, मंदिर, ठाकुर द्वारा आदि को ‘ये चोरों और डाकुओं का अड्डा' कहा करते थे और इनकी धारणा थी कि उनमें प्रेमरूसी परमात्मा का निवास होना असंभव-सा है । सरल हृदयता तथा अहंसा का परित्याग इनके अनुसार, सबसे अधिक आवश्यक है । ये अपना काफिर होना भी स्वीकार करते थे । इनके ये सिद्धांत इनकी रचनाओं में बड़े स्पष्ट शब्दों में अक्त किये गए हैं । इनके दोहरे, सीह, काफ़ीअवारा आदि प्रसिद्ध हैं और इनकी इन सभी रचनाओं में शुद्ध एवं सरल पंजाब के उदाहरण प्रस्मात्रा में मिलते हैं । सूतावनी (१) दुक बूझ कौन छप छाया हैं। कइ नुकते में जोड़े फेर पड़ा, तब ऐम गैन का नाम धरा। जब मुसिक नुक्ता दूर कियो, बत ऐभो ऐन कहाया है । तुसों इल्म किताबां पढ़देहो, केहे उलटे माने करदे हो। वे जब ऐ के लड्ढे हो, केहा उलटा बेब पढ़ाया है । दुद्ध दूर करो कोइ सीर नहीं, हिन्दु सुरक कोइ होर नहीं दे सब सा लडो कोइ चोर नहीं, घट घट में आष समाया है । ना में मुल्ला ना में काजी, ना मैं सुनी नर मैं हाजी। बुल्लेशाह नाल जाई बालो, अनहद सबद न जाथा है ।१। छप=नगोचर वेष में ककहीं। नुक्ते में एक बिंदु मात्र वा केवल उपाधियों के कारण 1 फर=भेद। ऐनपूर्णत संघ १ अक्षर।
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