पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४३२

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मध्ययुग (उत्तराई) ४१९ न=है अक्षर, छोटा सा बैल । कई .. धरा =जिस प्रकार अरबी के १ अक्षर पर एक बिंदु मात्र देने से ही बह है प्रक्षर बन जाता है उसी प्रकार पूर्ण निरुपांधि तव भी केवल नाम रूप को किंचित् उपाधि के ही कारण सीमित जान पड़ता है । मु रसिद =मुरशिंद सतगुरु । बत =बह बस्तु । तुसीं तुम । वे ... ऐों =उन उपाधियों के ही आधार पर 1 होर-- , भिन्न । नाल --जुए के अड्डे में ही । बही (२) अब त जाग मसाफिर प्यारे । रैम घटी लट सबब ‘तारे । अवागचन सराई , साथ तयार मुसाफिर तेरे, ऑल द सनदा कच कारे ! करले अब करन दी वेला, बहुरि न होसो अवन तेरा साथ तेरा चल चल पुकारे । प्रापके अपने लाहें दौड़ो, बंथा संरक्षण क्या निरवैन बोरी, लाहा नाम तू लेतु संभारे । दु ल्ले सहुदी पैरी परिय, गफलत छोड़ होला कुछ करिये, मिरग जतन बिम खेत उजारे २ो सरई डेरे -सराय के निवास की भांति है । अजे =अब तक भी। लाहे लाभार्थ । सरधन : नवन । लाहानाम-नमस्सरप जन्य लाभ । सवो -=साह वा मालिक के । हीला ठ साधन वा प्रपत्र । सिरस -, इंद्रियां।