पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४३८

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मध्ययुग (उत्तरार्द्ध) ४२. 11 (8) आजु हरि बरखा घूद सोहाघम। थिय के रीति प्रति छबि निरखत, पुलकि पुलकि मन भावन टेक। सुखमन सज से सुरंत संबाहहिलमिल झलक देखावन। गरजत गगन अनंत सब्द बुनि, पिया पपीहा गाधन ११। उसयो सागर सलिल नोर भतेवहूदिसि लत सोहावन । उपयो सुख सनमुख तिरंति भयो, सुधिबुधि सब विसंराबन 13 काम छोध मद लोभ छूटयो सब, अपने साहब भावम । कह गुलाल जंजाल गयो तब, हरदम भादो साधन 1३ झरि-=गेंदों की झड़ी लगाकर । (१०! अगम घर झलकत नूर निसान । उहां ससि अस्थूल न भान टेक। है। सुभग सरूप सुंदर प्रति निर्मलझंकृता बरखा ख(न । हंस स्वरूप तुगत तहां रुचि सों, सहज सुफल भयो पान ३१। अगस अगोचर अविंगत प्रभुजी, कहूँ लगि करछे बयान । कहै गुलाल संतन पग भ्ो, प्रेम सुध भगवान ।1२ा। झ लः =स्थलसाध१र ण । रेखता अजर जरें पूर सन शूर तब ही भयो, काम शुरु क्रोध को धरि जलाया। सीस का खेलना सुरति का मेलना, नूर सतगुरु का ममि बरा पाया है। लोग अर जुक्ति सों साफ़ साहब मित्पो भयो आनंद सब बुख बहाया है कहें गुलाल साहिब बामिल कियो । रोज फरे मुक्ति सत लोक छाया ॥१॥