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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४४२

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मध्ययुग (उत्तरार्द्ध) ४२ई कर सोस दियो चरनन महंनद अब पाचे हेरी ? जगजीवन के सतगुरु साहबआदि अंत तेहि केही १४१। गढ़-=संकट । हैरान (३) तेरा नाम सुमिरि मा जाय। नहीं बस कबू मोर आहैकरहें कौन उपाय 1१५ जबाह चहत हिल करिके, लेत चरनन लाय। बिसरि जब मन जात आहैदेत सब विसराय It अजब स्याल अपार ललाअंत काहु न पाय। जीव जंत पतंग जगमहेंकारू ना बिलगाय ।३। कर्ज विनती जोरि कर, कांत अहाँ सुनाय । जगजि वन गुरु चरन सरन, सैं तुम्हार कहा ४1॥ अज्ञान (४) सांई में नई श्रापुक जाना। को मैं अहं कहांत अथोंफिरत हीं कहां भुलाना 1१। काया कंचन लोक बनायो, तेहि का अंत न जाना। बूत कहेंअस्थान कौन है, सर्वे अंग ठहराना ।२ा। खत हाँ काहू सहि न्यारा, समुझतत आहाँ ज्ञाना। कौम जुक्ति जग बंब निकरिये, कैसे है मस्ताना 1३ ॥ मैं जान मन तुमहीं साहबताते सन बिलगाना। हिका रूप अनूप अमूरति, गगन मंडल अस्थाना ४11 तेहिते सूरति फूटी वेहिमां, गुरू अलव करि माना। चला। के कई बंदगी, सीस करई कुरबाना 1५है। गुमले में संतुष्ट हूं हाँ, अह0 मूर्ति निर्बाना । जगजीवन पर दाया कोहोंतबते अब पहिचाना ।६है।