पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

हैं। सतं-व्य साखीं अनुभष सोई जानियेजो नित रहै विचार । राम किनर सत शब्द गहउतर जय भपार 1१। चाह चमारी चूहड़ी, सब नोचन ते नीच। यूं तो रम ब्रह था, चहन होतो बोच्च २। साखी =चाह वासन है यूहड़ो=डोमिन । चाह.. .बीज = यदि वासा आकर तुम्हें अज्ञान में डाल कर बाधा म उपस्थित कर देती है संत दूलनदास जगजीवन साहब के कई शिष्यों में चार प्रधान थे जिन्हें ‘चारपावा ' कहा जाता है और उन चारों में भी सर्वप्रसिद्ध दूललदास हैं । दूलनदास का जन्म समेसी गांव (०ि लखनऊ के किसी सोमबंशी क्षत्रिय कुल में सं० १७१७ के अंतर्गत हुआ था । इनके पिता एक प्रतिष्ठित जमीदार थे और ये भी अपनी जमीदारी का प्रबंध अपने जीवन के अंतिम समय तक करते रहे । इन्होंने सरदहा में जाकर जगजोवन साहब से दीक्षा ग्रहण की थी और बहुत समय तक उनके साथ सत्संग करते हुए ये कोटव में भर्भ रहे थे । अपने जीवन के अंतिम दिनों में से रायबरेली जिले के धमें नाम गांव को बसाकर, वहीं स्वयं भी रहते थे । वहां पर ये एक जमीदार की साधारण बेश- भूषा का परित्याग करसादे ढंग से रहा करते थे और सदाव्रत भी चलाते थे । इनका आध्यात्मिक जीवन साधना, सत्संग एवं हरिभजन के रूप में निरंतर व्यतीत होता रहा और सं७ १८३५ में इनका देहांत हो गया । संत दूलनदासअपने गुरु जगजीवन साहब की ही भाँति, संतनामी संप्रदाय के थे जिसकी गणना संतपरंपरा में की जाती है । किंतु इनकी