पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४५४

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मध्ययुग (उत्तरार्द्ध) ४४१ रचनाओं को देखने से जान पड़ता है कि इन पर सगुणोपासना का का प्रभाव उनसे कहीं अधिक था। इनके ‘दसरथनंदवां ‘श्री रघुवीर। तथा रामदूत हनुमान’ ठीक वे ही इटदेव जान पड़ते हैं जो सगुण राम भक्तों के थे और इनकी भक्ति का स्वरूप भी, कई दृष्टियों से लगभग वैसा ही है जैसा उन लोगों की भावना के अनुसार' समझा जा सकता है । फिर भी दूलन दास की बानियों में अधिकतर सतनाम की ही ‘दु हाई ’ दीख पड़ती है और यही इनकी विशेषता भी है . दूलनदास की लगभग एक दर्जन रचनाओं के नाम सुनने में आते हैं, किंतु वे सभी अप्रकाशित हैं । इनकी चुनी हुई बानियों का एक संग्रह जेलवेडियर प्रेसद्वारा प्रकाशित किया गया है जिसे छोटा ही कहना उचित होगा । इनके पद जगजीवन साहब के पदों से अधिक सरस प्रतीत होते है और उनकी भाषा भी अधिक स्पष्ट एवं प्रौढ़ है । जान पड़ता है कि पदरचना का अभ्यास इन्हें अच्छा हो चुका था। । उनमें फ़ारसी शब्दों एवं मुहावरों के भी उदाहरण पाय जात हैं । पद नामस्मर (१) कोइ बिरला यह बिथि दम कद टेक। मंत्र अस्नो नाम दुइ अच्छरबिनु रसनारट लागि रहे 1१। होंठ द डोले अभ न बोलेसूरत धरति दिढाई गईं ।२है। दिम औौ रुति है सुधि लागी, यह माला यह सुमिरन है ५३। जस (लन सत गुठन बतायो, ताकी नाव पार निबहै ।४। नाम की प्रीति (२) स्म दहि नाको धूमि लाउ। रघु निरंतर नाम केवलअपर सब बिसरड 14१। संधि सूरत श्रानी, करि खुधा सिखर चढ़ाऊ । पोषि प्रेम प्रतीत हें, के ! राम नाम पढ़ाउ १२।