सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

४५४ संतकाव्य लघु दोरथ कहू कहां न जाई, जो पावे सो पावें। जी हनी को कैसे दरसे, गौरज सीस चढ़ावे ।।२॥ बहा रंभ का घाठ जहां है, उलट खेचरी नावें। सहस कमल दल तिलमिल रंगा, चोखा फू ल चुझाव 1३।" गंगा जसम मद्ध सरसुती, चरन मल से आयें। परबी कोटि परम पद माहों, सख के सागर हावै।४है। सुरत निरत बन पौन पदारथ, चारो तत्त मिला। आकारू उड़ चले बिहेगम, गंगम मंडल कुं धत्व १५।। मोर मुकुट पीतांबर राजकोटि कला छबि छाबं। अबरम बरन तासु के नtहो, विचर है मिरदावे ।६। बिनही वरन चले चिदानंदबिम ख बैन सुनाबे ॥ गरीबदास यह अकथ कहानी, ज्यूं गूंगर गुड़ खाब ५७। जीजूनी जब योनि । खचरी-=एक प्रकार की मुद्रा में परबो== तीर्थ। निरदावै =बिना किसी प्रकार का बाबा करता हुआ । साधु (२) जो सूते सो जना विदूते ,जागे सोई जग हैं ।टेक।। सू रे तेई नगर पहुंचे, कायर उलट भमें हैं। मौों द्वारे दरस दबादस वें ध्यान लगे हैं ।।१॥ सुन्न सहर में हुई । सगाई, हरे हंस मंगे हैं। निरगुम नाम निरालंब चीन्हों, हसरे साध सगे हैं।२ा। बिन मुख बानी सतगुरु गादेनहीं वस्त पते हैं। बास गरोब अमरपुर डेरे, सन्त के बाग बसे हैं।३। विगू ते ग्र समंजस में पड़ते है । दरीबा। हाट, चौमुहानी । मंगे हैं मगनी हुई है । प=घेर । बही सई साध अगध है, आपा न सराई। पर fनदा नह संच , चुगली नदह खावै ।१।