पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४७५

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संकाय शान विचार विवेक बिनक्यों दम तोरे स्वांस। कह होत हरि नाम , जो दिल ना बिस्वास 1२५। ऐसी जरना चाहिए, क्यों अगिन तत्ल में होय। जो कछ परे सो सब जरेबुरा न बांधे कोय ॥२६। ऐसी जरना चाहिएज्यों चंदन के अं। सुख से कच्छ न कहत है, तन सात वृअण ॥२७। सांई सरीखे संत हैं, यामें मीत न मेख । परथा अंग अनादि है, बाहर भीतर एक ५२८। सांई सरीखे साथ हैं, इन सम तुल नहि पुर। संत करें सइ होल है, साहब अपनी ठौर है२है। साध समुंदर कमल गति, मांहे सांई गंध। जिनमें दूजो भिन्न क्या, सो सा तिरबंध ।३०॥ सा७. . .गोसटी सत्संग । पकर =एक कार का सम्नि- पात उवर जिसमें बात, कफ व पित्त तीनों के अलाबल से उपाधियां होती हूं । बुदबुद=बबूला । नाल= निकट है चगून = बेचून, अखंड । . . . गीत =स के दुढ़ ध्यात में मग्न पांडे के अनुसार । समो- सले =लोन कर दे । कारीगर... . जो उस कारीगर को प्राण न्यौथाबर है । निरबंध =मुक्त । संत दरियाद्दास (विहार वाले) दरियाँदास का जन्म बिहार प्रांत के धरकंधा नामक गांव के एक मुस्लिम परिवार में हुआ था जो पहले उज्जैन वंशी क्षत्रिय रह चुका था। दरियासागरके संपादक इनका जन्मकाल सं ० १७३१ में ठहराते हैं, किंतु दलदास दरियायी के अनुसार वह सं० १६९१ में होना चाहिए। इनके मृत्यु-कांल (० १८३७) के विषय में मतभेद नहीं