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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४८८

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मध्ययुग (उत्तरार्द्ध ) ४७५ दरसो जोति पर मुंच पायो, सबहों कर्म जलावें। पाप पुण्य दोऊ भय नांहोजन्म मरन बिसरावे। ३। अनहद अनंब अति उपजा, कहि न स गति सॉरी। अति ललचाव फिर नाह , लगो अलख यारी\४१। हंस कमल दल सतगुरू , रुचि-रुचि दरसा पाऊँ। कहि सुकदेव चरनही दासा, सब बिषि तोह बंताओं ।थे। । गुरुगमगुरु द्वारा बतलायी गई युक्ति के अनुसार साधना कर के से अंचवन कोहाटपी लिया। परमद (2) ऐसा दस दिबानारे लोगो, जाय सो सांता होय। बित मदिरा मतवारे में, जन्म मरल दुख खोय।१। कोटि चंद सूरज उजियारोरविससि पहुँचत नाहीं। बिना सीप मोती अनमोलक, बहु दामिनि व मकाहीं।२। वित्त ऋतु फूले फूल रहत हैं, अमृत रस फल पाये। पवन गबन बिन पवन बहत है, बिन बादर हरि लार्ग 1 ३। अनहद शब्द भंवर गुंजा, संख पखावज बातें। ताल घंठ मुरली घन घो, भेरि दमाम गाजें ।४। सिद्धि गर्जना अतिहीं भारीसुंघुरू गति झनकारें। रंभा नय करे बिन पगढ़, बिस पायल ठनकाएं।।। गुरु सुकदेव करें जब किरपा, ऐसो नगर दिखावें। चरनवास बा पग परसे, अवागन नसावें ।६। झतरिलाने =वृष्टि हुआा करती है। रंभा==असरा। बिंडोना । () जो मर""अये न उतरे 11वेक।। उतको प्रेम भक्ति नह उपजीइ नह नारी सुतके 1१।