पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४८९

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४७६ संत-काव्य घर निकसि का उन कीन्हा, घर घर भिक्षा मांगी। बाना सिंह चाल भेडन की, साध भये प्रफिक स्वांगी 7२॥ ’ तन मुंडा ये मत नहि मुंडा, अनहद चित्त न दीन्हा । इन्द्री स्वाद मिले विधयन सों, बकबक बकबक कीम्हा।६। माला कर में सुरक्षित न हरिमें, यह सुमिरन कहू के । बाहर भेख धारिक बैठा, अन्तर क्षेता पैसा है।७। हिंसा प्रकस कुबुधि हिं. छोड़ो, हिदय सांच न आया। चरनदास सुकदेव कहत हैं, बाना पहिरि लज़ाया 15 । अकि==या कि, अथवा। बाना=भेष, बाहरी रूप रंग । अकस-= बंर, ब्ष है। आरत (१०) आरति रमत राकि को, अंतद्र्घन निरल सू लीजें। चेतन चौकी सत आासन, मगन रूप तकिया बरि लीजे ।५१। सोह थाल स्वि मन धरियां, सुरति निरति शेड बाती बरिया। जोग जुगति से अrरति साजी, अनहई घंट ऑपटें बाजी है)। सुमति सांस की बेरिया आईपांच पचीस मिलि अप्रति गाई। चरमदास सुकदेव को चेरोघट घट दरसे सहब मेरी 11३है। स्क् प्रहुि , अतई , मध्हें अनेक ऐसेहि जानते। बंध श्रानंदमुबई अटैंड, अनैद लान अशान छिानो। लेटेई श्राद बैठहें नान्द, जलत शानद, आनंद प्रान। चरनदास बिचारि सब करआनंद अड़िों दुक्ख म ठानौ ।।११ आदिल चतम अंत चेतन, मध्यडू चेतनम माया में देखी। अहां अद्भुत प्रखंड निरालभ, और न दूसो आनंद ऐसी । सिधू अथाह अपार बिराजतरूप में रंग नहीं कछ देखी। चरनबास नहींसुकदेव नहीं, तलै न कोइ मारग न को भेखी ।२।