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पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४९०

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४७७ मध्ययुग (उत्तराई) इवास उसास चले जब आपहि, है जुनु प्रखंड द क् न टारो। भीतर बाहर है भरपूर सो ढूंढी कहां नहि नाहिन स्थारो । चरनदास कहैं गुरु भेद दियो, भ्रम दूर भयो जु हृतो प्रतिभागे। दृष्टि आर्षि जु रामको देखत, राम भयो पुनि देखन ाो 1३। निरालभ=अलभ्य। ऐसी =देखा। यारो==। छप्प माला तिलक बना, पूर्व प्ररु पच्छिम बौरा। नानि कमल करिहित जंगल भी बरा। चांद सूर्य थिर नहोंनहीं थिर पवन न पानी। तिरदेव थिर , नहीं थिर माया रानी। चरनदास लव वृष्टि भर, एक शब्द भरपूर है। निरखि प िले निकट ही, कहन नन र है ।।१। हिरन..... वर=हिरन की भांति जंगलों में पागल बना घमां । सतगु सदो लागिया, नावक का सा तीर। कलकत है निकसर नहीं होने प्रेम की पौर।१। ऐसा सतगुरु कीजिएजीबत डारे मारि । जन्म जन्म को बासना, ता देने जात्रि १२। प्रेम टाबे उक्त , प्रेम स्मिलाबे राम। प्रेम करे गति औरही, लें पहुंचे हरि धाम 1३। पीव चह के मत चौ, वह तई पर्षों की दास। पिय के रग रातो रह, जग सू होय उदास५४। । रंग होय तो पत्र को, मान पुरुष विष रूप। छांह बुरी पर घरन की, अपनी भली जज धूप ।५।