भी स्थान दे दिया। दोहों और सोरठों के भी इनमें विविध रूप
देखे जाते हैं जो इनकी केवल थोड़ी सी मात्राओं के हेरफेर से ही
सिद्ध हो जाते हैं। आदिग्रंथ' में इन साखियों को ही ‘सलोक' नाम दिया
गया है जो संभवतः श्लोक वा अनुष्टुप बंद का स्मरण दिलाता है ।
नाथ पंथियों की रचनाओं में हमें साखियाँ वा दोहे नहीं दीख पड़ते,
किंतु उनमें इनका काम 'सबदियों' द्वारा लिया गया है जो अन्य प्रकार
के छंदों में हैं ।
संतों के सखी संग्रह विविध अंगों में विभाजित पाये जाते हैं। जिनके नाम अधिकतर 'गुरु देवको अंग, 'सुमिरणको अंग',परचाकौ अंग, 'विरहको अंग, सूरातनको अंग, आदि रूपों में दीख पड़ते हैं । 'अंग' शब्द का अर्थ साधारणतः शरीर अथवा उसका कोई न कोई भाग समझा जाता है, जिस कारण उक्त प्रत्येक अंग को हम साखी वा साक्षी पुरुष की देह अथवा उसके अवयव विशेष का बोधक साक्षी मान सकते हैं । इस प्रकार अंग शब्द से अभिप्रांय यहाँ पर साखी संग्रह के . किसी खंड का होगा। परंतु कबीर साहब ने इस शब्द का प्रयोग एक स्थल पर ‘लक्षण' के अर्थ में भी किया है जिससे सूचित होता है कि साखियों के रचयिताओं ने उक्त शीर्षकों द्वारा कतिपय विषयों का परिचय देने के प्रयत्न किये होंगे । इंस कथन के लिए अभी तक कोई भी आधार उपलब्ध नहीं कि कबीर साहब की साखियाँ आरंभ से ही इस प्रकार विभाजित थीं। इस बात के कुछ उल्लेख अवश्य मिलते हैं कि दादूदयाल की साखियों में पहले इस प्रकार का क्रम नहीं लगा था। उन्हें सर्वप्रथम ऐसे अंगों में विभाजित करने वाले
निर बरतें निहामता, साई सेती नेह ।
विषियासू न्यारा रहै, संतनि का अंग एह ।।१।।
‘कबीर पंथावली’, पृष्ठ ५०।