पृष्ठ:संत काव्य.pdf/४९१

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४७२ संतकाव्य स' हां कहूं तो है नहीं, बेहद कहूं तो नह। श्याम स्वरूपी कहत हों, बैन सैम के सह ६। मम हिरदय में प्राय , सुमही कियो प्रकास। जो फस्र कहीं सो तुम कहोमेरे मुख सों भास ७। तप क के बरस हजारह, सत संगत घट्रि एक। तौहू सरवरि ना करेंसुकदेव किया विवेक ।।८' अपने घर का दुख भलापरघर का सुख छार। ऐसे जाने बुलबशू सो सतवंती नारle। जग है ऐसे रहो, ज्यों अंबुज सर सहेि । है नीर के आसरेपे जल छूवत नाह है।१०। शरिल न उपजे खेत में, शोल न हट बिकाय। जो हो पूरा टेक का लेवे अंग उपजाय 1११। शोल कसैला आंवला, और बड़ी का खेल। पाछे बेटे स्वाद वे, चरनदास कहि खोल ११२है लाख यही उपदेस है, एक शील हूं राख। जन्म सुधारों, हरि मिलौचरनदास की साख 1१३। खाथ बस्स बिचारि , बैठे ठौर विचार। जो कछु कर बिचारि करि, किरिया यही अचार ।१४॥ जैसे सुपना रैन का, मुख दपर्ण के संहि ? भागे है पर है नहीं, क्यों बरबर की छह १५।। इन्द्रिन टू मन बस करं, मनहूं बस करं पन। अनहद बस कर वायु , अनहद क़ ले तन 1१६। । इन्द्री पलटे मन विधे, मन पलटे बुषि मांट्रि। बुधि पलटे हरि ध्यान , फेरि होय जांहि ११७ द्रव्य मांहि दुख तीन है, यह ने निश्चय जान। आवत दुख राखत दुखी, जात प्राण की हान क१८।